अपने ही घर में बेगानी राजस्थानी फिल्में

अन्य राज्यों की तुलना में बहुत पीछे, 68 साल के सफर में बस सौ का आंकड़ा पार कर पाई
कैलाश चौधरी
आज देश के हर हिस्से में श्रेत्रीय भाषाओं की अपनी एक अलग पहचान है। तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलगु, भोजपुरी गुजराती हो या फिर मराठी हर भाषा की फिल्में खूब बन भी रही हैं और सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। इसके उलट राजस्थानी सिनेमा को देखें तो वह इतना पिछड़ गया है कि इनके सामने दूर-दूर तक कहीं खड़ा दिखाई नहीं देता। दूसरे राज्यों की तो छोड़ो अपने ही घर में ढंग से पहचान नहीं बना पाई हैं राजस्थानी फिल्में। हमारे प्रदेश के कलाकार टीवी की दुनिया में धूम मचाने के साथ ही बॉलीवुड व हॉलीवुड में भी अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। यहां तक कि हमारे परिवेश और हमारी भाषा को आधार बनाकर टीवी चैनल भी खूब वाहवाही लूट रहे हैं, पर हम सांस्कृतिक रूप से इतने समृद्ध होने के बावजूद पहचान नहीं बना पा रहे हैं। आखिर क्यों?
वजह साफ है वहां की सरकारें श्रेत्रीय  भाषा की फिल्मों को पूरा संरक्षण देती है। सरकार की ओर से मिलने वाली सुविधाओं पर एक नजर डालिए-
1. हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्म को 5 से लेकर 25 लाख तक की सब्सिडी दी जाती है। (यह राज्यवार अलग-अलग है)।
2.  क्षेत्रीय भाषा की फिल्म के लिए राज्य में किसी भी लोकेशन पर शूटिंग करने की छूट
3.  हर सिनेमा हॉल्स में एक साल में कम से कम 30 दिन श्रेत्रीय  भाषा कि फिल्म दिखाना अनिवार्य है।
इस सरकारी प्रोत्साहन के अलावा क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों का भी पूरा सहयोग मिलता है।
हमारे यहां की स्थिति
सरकार की ओर से किसी भी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती। लोकशन का भी वही किराया लिया जाता है जो बॉलीवुड निर्माताओं से लिया जाता है। सिनेमा हाल वाले फिल्म लगाने को तैयार नहीं होते। तैयार भी होते हैं तो वो भी दुगुने भाड़े पर। अगर सिनेमा हॉल का रोजाना का एवरेज कलेक्शन 3000 रुपए है तो वह राजस्थानी फिल्म के निर्माता से 5000/ से 6000 रुपए मांगेगा। ऐसे में फिल्म के हिट होने के बाद भी निर्माता घाटे में ही रहता है, क्योंकि हिट फिल्म में भी रोजाना का एवरेज कलेक्शन मुश्किल से 4000 से 5000  के आसपास आता है। बैनेर-पोस्टर व प्रचार का खर्च भी इसी में से निकालना पड़ता है।
यह किया जा सकता है
अन्य राज्यों की तरह राजस्थान सरकार की ओर से राजस्थानी फिल्म निर्माताओं को सब्सिडी दी जाए।
राज्य में लोकशन निशुल्क या न्यूनतम भाड़े पर दी जाए।
सिनेमा हॉल वाले राजस्थानी फिल्म 50/50  प्रसेंटेज पर लगाएं। या फिर सिनेमा हॉल कम से कम एवरेज कलेक्शन से थोड़ा कम रु 2000 प्रतिदिन पर भाड़े पे दिया जाए।
...तो फिर छा जाएगा हमारा सिनेमा
अगर ऐसा होता है तो निर्माता को फायदा होगा। लाभ का सौदा दिखेगा तो लोग राजस्थानी फिल्में बनाने के लिए आगे आएंगे। फिल्में बनने लगेगीं तो हमारे यहां के कलाकारों को व फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी रोजगार मिलेगा। सबसे बड़ी बात यह होगी कि दम तोड़ता राजस्थानी सिनेमा फिर से खड़ा हो जाएगा।
(लेखक फिल्म निर्माता हैं। प्रोडक्शन हाउस-मंगल फिल्म्स, मुंबई)

1 टिप्पणी

Rajendra ने कहा…

हम सरकारी सहायता से राजस्थानी फ़िल्में क्यों बनाना चाहते हैं ? राजस्थानी फिल्मों की पहचान नहीं बनाने का कारण खुद फिल्म बनाने वाले हैं. वे एक दायरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. सही बात तो यह है कि राजस्थानी फिल्मों को काबिल फिल्मकारों की दरकार है. जो काबिल हैं वे हिंदी फिल्म बनाने निकल पड़ते हैं और वहां सफल होने पर राजस्थानी फिल्म बनाना अपनी हैसियत से कम समझते हैं. अपनी भाषा के प्रति भी हमारा यही लगाव है. जदे ताईं आपां आपणी बोली माथे नी इतरावोंला आपां खुद री ने राजस्थानी फ़िल्मां री कोई भलाई कोनी कर सकांला.

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