...तो यह तय रहा

यूं बना राजस्थानी फिल्म फेस्टिवल का विचार
शाम का वक्त था। संतोष निर्मलजी और मैं थड़ी पर चाय पी रहे थे। बातों-बातों में राजस्थानी सिनेमा का जिक्र चल पड़ा। साठ साल के इतिहास में मात्र सौ फिल्में! वाकई झटका देने वाला सच था। चर्चा चली तो कईं बातें निकल कर सामने आई। हिंदी सिनेमा के एक गाने या एक सेट के खर्च में जब एक राजस्थानी फिल्म बन सकती है तो क्यों नहीं कोई फाइनेंसर इनमें पैसा लगाता, जबकि बॉलीवुड में राजस्थानी फाइनेंसरों की अच्छी खासी जमात है। एक वजह, टेरेटरी कम होने की वजह से फिल्म की लागत नहीं निकल पाती, शायद इसलिए भी लोग कदम आगे नहीं बढ़ा पाते। मजे की बात देखिए कि राजस्थानी भाषा में बनी फिल्मों को राजस्थान की अपनी राजधानी में ही थिएटर नहीं मिलते। ले देके मोती महल या फिर कोई छोटा-मोटा और। ऐसे ही कई सवालों के दौरान विचार आया कि  क्यों न इन सब बातों पर बड़े स्तर पर चर्चा हो ताकि हमारे सिनेमा की प्रगति की कोई राह निकले। ...और इसके लिए सबसे बढिय़ा विचार यही लगा कि राजस्थानी फिल्म फेस्टिवल किया जाए। तो यह तय रहा, के साथ हम लोग वहां से उठे।
दो चार दिन बाद हमने इसकी हलकी रूपरेखा बनाई और उन लोगों से मिलना शुरू किया जो राजस्थानी फिल्मों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। साथ ही उन लोगों से भी संपर्क करना शुरू किया जिन्होंने राजस्थानी फिल्मों पर लिखा हो, राजस्थानी भाषा पर कुछ काम किया हो। मैं और निर्मलजी इस काम में लग तो गये लेकिन दोनों ही इस क्षेत्र में नये थे। ऐसे में किसी ऐसे शख्स की जरूरत थी जो हमारा मार्गदर्शन कर सके। एक नाम फाइनल हुआ, वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बोड़ाजी। हम दोनों उनके पास अपना प्रस्ताव लेकर पहुंचे, उन्हें भी यह बहुत पसंद आया। उन्होंने हमें हरसंभव सहयोग के आश्वासन के साथ क्या और कैसे किया जाए यह भी बताया। राजस्थानी फिल्म फेस्टिवल नाम मुझे अजीब सा लग रहा था। मेरा विचार था, जब हम राजस्थानी सिनेमा की बात कर रहे हैं तो कार्यक्रम का नाम भी राजस्थानी में ही होना चाहिए। अपनी बात मैंने बोड़ाजी व निर्मलजी को बताई। उनको भी यह बत जम गई। नाम पर मंथन शुरू हुआ।
तीसरी शाम मेरे पास बोड़ाजी का एसएमएस आया। 'राजस्थानी फिल्मां रो उच्छब नाम कैसा रहेगा। नाम ऐसा था एक ही नजर में जम गया। निर्मलजी को बताया तो उन्हें भी यह एकदम सटीक लगा। इस तरह फस्टिवल का नाम फाइनल गया।

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