संस्कृति के सिनेमाई सरोकार
डॉ. राजेश कुमार व्यास
तमाम कलाओं का सामूहिक मेल सिनेमा है। वहां संगीत है। नृत्य है। नाट्य है, तो चित्रकला भी है। ऋत्विक घटक ने इसीलिये कभी कहा था कि दूसरे माध्यमों की अपेक्षा सिनेमा दर्षकों को त्वरित गति से चपेट में लेता है।...एक ही समय में यह लाखों को उकसाता और उत्तेजित करता है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में राजस्थानी फिल्म महोत्सव में भाग लेते मायड़ भाषा और उसके सिनेमा सरोकारों को भी जैसे गहरे से जिया। सदा हिन्दी में बोलने वाले सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के शासन सचिव कुंजीलाल मीणा राजस्थानी में बोल रहे थे और सिनेमा से जुड़े गंभीर सरोकारों पर बखूबी बतिया भी रहे थे। अचरज यह भी हुआ, 1942 में जिस भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात कलाकारों को लेकर पहली फिल्म ‘निजराणो’ का आगाज हो गया था, वह सिनेमा विकास की बाट जो रहा है। जिस सिनेमा में कभी रफी ने ‘आ बाबा सा री लाडली...’ जैसा मधुर गीत गाया, जहां ‘जय संतोषी मां’ समान ही ‘सुपातर बिनणी’ जैसी सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के सफर में भी पहचान की राह तक रहा है। भले इसकी बड़ी वजह दर्षकों का न होना कहा जाये परन्तु तमाम हिट-फ्लॉप फिल्मों से रू-ब-रू होते इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि तकनीक की दीठ से अभी भी यह सिनेमा बहुत अधिक समृद्ध नहीं है। सच यह भी है कि सिनेमा जैसे बड़े और फैले हुए माध्यम की समझ का भी मायड़ भाषा में टोटा सा ही रहा है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं को बखूबी परोटते हिन्दी सिनेमा ने निरंतर दर्षक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा कैनवस इससे कभी बड़ा नहीं हुआ। पचास से भी अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म ‘वीर दुर्गादास’ में भरत व्यास रचित मुकेष-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत ‘थाने काजळियो बणा लूं...’ था। तब भी और आज भी यह लोकप्रिय है परन्तु राजस्थानी सिनेमा ‘बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सती’ करमा बाई’ ‘वीर तेताजी’, ‘नानी बाई को मायरो’ जैसी धार्मिक फिल्मांे और ‘बाई चाली सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडली’ और इधर बनी ‘पंछिड़ो’ ‘भोभर’ जैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से आगे नहीं बढ़ सका है। जो फिल्में बनी हैं, उनमें अधिकतर ऐसी हैं जो हिन्दी सिनेमा की तड़क-भड़क का बगैर सोचे अनुकरण करती भद्दे, विकृत और हीन वृत्त्तियों को उत्तेजन देने वाले तरीकों पर ही केन्द्रित रही है। हल्केपन की इस नींव में कितने ही खूबसूरत कंगूरे लगा दें, इमारत के भरभराकर गिरने से रोकने की गारंटी क्या कोई दे सकता है!
बहरहाल, राजस्थानी फिल्म महोत्सव सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये वातायन खुले हैं। सिनेमा की गहरी समझ रखने वाले मित्र संजय कुलश्रेष्ठ से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘फिल्म समारोह से निर्माता जगेंगे। दूसरे पक्षों में भी कुछ चेतना तो आएगी ही।’ सवाल यहां यह उठता है कि फिल्म निर्माण की कला को राजस्थानी में क्या वाकई सुनियोजित रूप से लिया गया है? जब राजस्थानी लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दीठ से के.सी. मालू जैसे शख्स अपने तई पुनराविष्कार कर उसका सुदूर देषों तक व्यापक प्रसार कर सकते हैं तो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि राजस्थान की संस्कृति यहां की भाषा का सिनेमा सषक्त संप्रेषण माध्यम हो सकता है। दक्षिण का ही उदाहरण लें। बदलते हुए समय में भी वहां सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दीठ तो हो। तकनीक की समझ तो हो। यह सिनेमा ही है जो अपनी बात कान, वेनिस, कार्लोवी, वारी से लेकर सुदूर गांवों तक पहुंचा सकता है। फिल्म प्रदर्षन की सीमाओं के चलते एक आस जवाहर कला केन्द्र के महानिदेषक हरसहाय मीणा ने भी दी है। राजस्थानी सिनेमा के लिये तमाम पक्षों की ओर से सार्थक पहल यदि इस फिल्म महोत्सव के बहाने ही होती है तो इसमें बुरा ही क्या है!
(http://drrajeshvyas.blogspot.com/2011/09/blog-post_29.html यह लिंक हमें अविनाश अचार्य ने ईमेल किया है। )
तमाम कलाओं का सामूहिक मेल सिनेमा है। वहां संगीत है। नृत्य है। नाट्य है, तो चित्रकला भी है। ऋत्विक घटक ने इसीलिये कभी कहा था कि दूसरे माध्यमों की अपेक्षा सिनेमा दर्षकों को त्वरित गति से चपेट में लेता है।...एक ही समय में यह लाखों को उकसाता और उत्तेजित करता है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में राजस्थानी फिल्म महोत्सव में भाग लेते मायड़ भाषा और उसके सिनेमा सरोकारों को भी जैसे गहरे से जिया। सदा हिन्दी में बोलने वाले सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के शासन सचिव कुंजीलाल मीणा राजस्थानी में बोल रहे थे और सिनेमा से जुड़े गंभीर सरोकारों पर बखूबी बतिया भी रहे थे। अचरज यह भी हुआ, 1942 में जिस भाषा में महिपाल, सुनयना जैसे ख्यात कलाकारों को लेकर पहली फिल्म ‘निजराणो’ का आगाज हो गया था, वह सिनेमा विकास की बाट जो रहा है। जिस सिनेमा में कभी रफी ने ‘आ बाबा सा री लाडली...’ जैसा मधुर गीत गाया, जहां ‘जय संतोषी मां’ समान ही ‘सुपातर बिनणी’ जैसी सर्वाधिक व्यवसाय करने वाली फिल्म बनी, वह 69 वर्षों के सफर में भी पहचान की राह तक रहा है। भले इसकी बड़ी वजह दर्षकों का न होना कहा जाये परन्तु तमाम हिट-फ्लॉप फिल्मों से रू-ब-रू होते इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि तकनीक की दीठ से अभी भी यह सिनेमा बहुत अधिक समृद्ध नहीं है। सच यह भी है कि सिनेमा जैसे बड़े और फैले हुए माध्यम की समझ का भी मायड़ भाषा में टोटा सा ही रहा है। राजस्थान की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और कलाओं को बखूबी परोटते हिन्दी सिनेमा ने निरंतर दर्षक जोड़े हैं जबकि राजस्थानी सिनेमा कैनवस इससे कभी बड़ा नहीं हुआ। पचास से भी अधिक वर्ष हो गये हैं, हिन्दी फिल्म ‘वीर दुर्गादास’ में भरत व्यास रचित मुकेष-लता का गाया पूरा का पूरा राजस्थानी गीत ‘थाने काजळियो बणा लूं...’ था। तब भी और आज भी यह लोकप्रिय है परन्तु राजस्थानी सिनेमा ‘बाबा रामदेव’, ‘लाज राखो राणी सती’ करमा बाई’ ‘वीर तेताजी’, ‘नानी बाई को मायरो’ जैसी धार्मिक फिल्मांे और ‘बाई चाली सासरिये’, ‘ढोला-मरवण, ‘म्हारी प्यारी चनणा’, ‘दादो सा री लाडली’ और इधर बनी ‘पंछिड़ो’ ‘भोभर’ जैसी कुछेक गिनाने लायक फिल्मों से आगे नहीं बढ़ सका है। जो फिल्में बनी हैं, उनमें अधिकतर ऐसी हैं जो हिन्दी सिनेमा की तड़क-भड़क का बगैर सोचे अनुकरण करती भद्दे, विकृत और हीन वृत्त्तियों को उत्तेजन देने वाले तरीकों पर ही केन्द्रित रही है। हल्केपन की इस नींव में कितने ही खूबसूरत कंगूरे लगा दें, इमारत के भरभराकर गिरने से रोकने की गारंटी क्या कोई दे सकता है!
बहरहाल, राजस्थानी फिल्म महोत्सव सार्थक पहल है। इसलिये कि इसके अंतर्गत दिखाई फिल्मों और आयोजित विभिन्न विचार सत्रों से चिंतन और समझ के नये वातायन खुले हैं। सिनेमा की गहरी समझ रखने वाले मित्र संजय कुलश्रेष्ठ से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘फिल्म समारोह से निर्माता जगेंगे। दूसरे पक्षों में भी कुछ चेतना तो आएगी ही।’ सवाल यहां यह उठता है कि फिल्म निर्माण की कला को राजस्थानी में क्या वाकई सुनियोजित रूप से लिया गया है? जब राजस्थानी लोकगीतों का संस्कृति के मूल सरोकारों के साथ तकनीकी दीठ से के.सी. मालू जैसे शख्स अपने तई पुनराविष्कार कर उसका सुदूर देषों तक व्यापक प्रसार कर सकते हैं तो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि राजस्थान की संस्कृति यहां की भाषा का सिनेमा सषक्त संप्रेषण माध्यम हो सकता है। दक्षिण का ही उदाहरण लें। बदलते हुए समय में भी वहां सिनेमा ने समाज को संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखा है। किसी भी भाषा में यह जरूरी नहीं है कि जो फिल्में बने वह सबकी सब महान या कालजयी हों ही परन्तु जो फिल्में बनें उनमें कला की दीठ तो हो। तकनीक की समझ तो हो। यह सिनेमा ही है जो अपनी बात कान, वेनिस, कार्लोवी, वारी से लेकर सुदूर गांवों तक पहुंचा सकता है। फिल्म प्रदर्षन की सीमाओं के चलते एक आस जवाहर कला केन्द्र के महानिदेषक हरसहाय मीणा ने भी दी है। राजस्थानी सिनेमा के लिये तमाम पक्षों की ओर से सार्थक पहल यदि इस फिल्म महोत्सव के बहाने ही होती है तो इसमें बुरा ही क्या है!
(http://drrajeshvyas.blogspot.com/2011/09/blog-post_29.html यह लिंक हमें अविनाश अचार्य ने ईमेल किया है। )
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