क्या ये फिल्में सिनेमा हॉलों में लगती है?

यह हकीकत हमें स्वीकारनी पड़ेगी, कि शहरी लोगों को हमारी फिल्मों की खबर ही नहीं है
शिवराज गूजर
मेरे एक अभिनेता मित्र और मैं कैंटीन में बैठे बात कर रहे थे। इसी दौरान हमारी एक साथी पत्रकार वहां आईं तो मैनें उन्हें उनसे परिचय कराने के लिए बुला लिया। जब मैंने उन्हें बताया कि ये राजस्थानी फिल्मों के हीरो हैं। उनकी फिल्म की एक सीडी भी उन्हें दिखाई। सीडी देखने के बाद उन्होंने सवाल किया-क्या ये फिल्में सिनेमा हॉल में लगती हैं? मैंने तो कभी इनके पोस्टर बाजार में लगे नहीं देखे।
उनके इस सवाल ने हमें बगलें झांकने पर मजबूर कर दिया। उनका यह सवाल बेमानी नहीं था। यह हकीकत हमें स्वीकारनी पड़ेगी, कि शहरी लोगों को हमारी फिल्मों की खबर ही नहीं है। कारण भी साफ है-हम प्रचार में तो पीछे हैं ही, राजस्थानी फिल्में मल्टीप्लेक्स में भी नहीं लगती। सिंगल स्क्रीन में लगती भी हैं तो वो भी ऐसे सिनेमा हॉल्स में जिनमें जयपुर के लोग जाना ही पसंद नहीं करते। ऐसे में फिल्म दो-तीन दिन से ज्यादा कैसे चल सकती है।
सोच बदलनी पड़ेगी 
जयपुर में राजस्थानी फिल्म कोई देखने ही नहीं आता, हमें इस सोच को बदलना पड़ेगा। फिल्म बनाते समय हमें गांव वालों के साथ-साथ शहरी दर्शकों को भी ध्यान में रखना पड़ेगा। शहरी दर्शकों को हम फिल्मों की ओर खींच पाए तो फिर राजस्थानी फिल्मों को चलने से कोई नहीं रोक पाएगा। गांवों में आज भी फिल्में देखने का इतना चलन नहीं है। महिलाओं में तो यह न के बराबर है, अगर फिल्म धार्मिक न हो।
अगर आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि शहरों में आज भी फिल्मों के प्रति अच्छी खासी दीवानगी है। लोग 100 से 150 रुपए प्रति व्यक्ति टिकट होने के बाद भी फिल्म देखने जाते हैं, कारण वे इतना अपने ऊपर खर्च कर पाने का दम रखते हैं। इसके उलट अधिकतर गांव वाले दस रुपए भी खर्च करने से पहले दस बार सोचते हैं।
ग्रामीण बुजुर्ग आज भी पीढ़ी को बिगाडऩे वाला मानते हैं सिनेमा को
सदी चाहे 21वीं हो लेकिन गांवों के बुजर्ग आज भी इस मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं कि फिल्में युवाओं को बिगाड़ती हैं। धार्मिक फिल्मों को छोड़कर वे आज भी अपने परिवार में किसी को फिल्म देखने नहीं जाने देते सिनेमा हॉल में। युवा घरवालों से छिपकर फिल्में देखते हैं, पता चल जाता है तो उन्हें डांट खानी पड़ती है। हो सकता है आपको यह किताबी सा लगे लेकिन धरातल पर उतरोगे तो इस सच का पता चलेगा।
अपनी फिल्म के प्रति उत्सुकता जगानी पड़ेगी
इसलिए प्रमोशन के लिए कलाकारों को साथ लेकर फिल्मकारों को गांव वालों के बीच पड़ेगा। उनके मन में अपनी फिल्म के प्रति उत्सुकता जगानी पड़ेगी। फिल्म के पोस्टर सिनेमा हॉल के बाहर या शहर में लगाने से ही काम नहीं चलेगा, गांवों को पोस्टरों से पाटना पड़ेगा। लोग पोस्टर देखेंगे तो चर्चा करेंगे। चर्चा करेंगे तो फिल्म देखने का विचार भी बनेगा। विचार बनेगा तो लोग सिनेमा घर तक भी आएंगे।

2 टिप्‍पणियां

Rajendra ने कहा…

You have aptly summed up the dilemma of Rajasthani films. Neither they are made for intelligent urban viewers nor for modern country side. Producers try to play safe by repeating themes like "Baaisaa", "Supatar", and "Raani Sati". That is why they can boast of neither content nor form. Thanks for raising this debate which may lead to better future for Rajasthani films.
Rajendra

ams ने कहा…

I Really agree with you.

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