...नहीं तो हम बताया करेंगे-बेटा कभी राजस्थानी फिल्में भी बना करती थीं

हाल ही रिलीज हुई राजस्थानी फिल्म 'सुपात्तर बेटी' में मुख्य खलनायक की भूमिका निभाई है राज जांगिड़ ने। भीलवाड़ा जिले के गुलाबपुरा कस्बे के एक साधारण परिवार में जन्मा राज दूसरी कक्षा तक पढ़ा हुआ है। आज उसके अभिनय की चमक में पढ़ाई में रही यह कमजोरी बहुत पीछे छूट गई है। हमसे बातचीत में उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू पर चर्चा की।
आपके हिसाब से राजस्थानी फिल्मों के पिछडऩे का क्या कारण है?
राजस्थानी फिल्मों के पिछडऩे का सबसे बडा कारण राज्य सरकार की बेरुखी है। पर्याप्त सुविधाएं एवं लोकेशन उपलब्ध नहीं होने के साथ ही सिनेमा हॉल नहीं मिलना भी बड़े कारण हैं, जिनकी वजह से राजस्थानी फिल्म जगत की कमर टूट रही है। दूसरे राज्यों की बात करें तो वहां की सरकारें फिल्मकारों को सब्सिडी देने के साथ ही अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी पूरा सहयोग करती है। यही कारण है कि वहां का सिनेमा प्रगति कर रहा है। यदि समय रहते राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो राजस्थानी फिल्में इतिहास की बात बन जाएंगी और हम अपने बच्चों को बताया करेंगे, 'बेटा हमारे जमाने में राजस्थानी फिल्में बना करती थीं।'
ज्यादातर फिल्मकारों का कहना है कि राजस्थान के लोग ही राजस्थानी फिल्में देखने नहीं आते?
ऐसी बात भी नहीं है कि राजस्थान के लोग अपनी भाषा में बनने वाली फिल्मों को नापसन्द करते हों। इतिहास गवाह है कि बड़े पर्दे पर जब-जब किसी राजस्थानी फिल्म का प्रदर्शन हुआ तब-तब उसे दर्शकों का भरपूर प्यार मिला है। राजस्थानी भाषा में अब तक 1942 से लेकर 2010 तक करीब 111 फिल्मों का प्रदर्शन हो चुका है। लगभग सभी को दर्शकों ने पसन्द भी किया।
आपको क्या लगता है, राजस्थानी सिनेमा के विकास के लिए सरकार को क्या करना चाहिए?
दूसरे प्रदेशों की तरह राजस्थानी फिल्मों को मनोरंजन कर मुक्त करे और सब्सिडी दे। राजस्थान फिल्म डवलपमेंट कॉर्पोरेशन बोर्ड' का गठन करे। सरकारी उद्यान, इमारतों तथा महलों में राजस्थानी फिल्मों की शूटिंग के लिए शूल्क में रियायत मिले। निर्माता को दूसरी राजस्थानी फिल्म बनाने पर राज्य सरकार की ओर से दस लाख रुपए का अनुदान दिया जाए। राजस्थान के सिनेमा मालिकों के लिए सख्त हिदायत हो कि साल में 28 दिन राजस्थानी फिल्म चलाएं। ऐसा नहीं करने पर लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा।
राज्य सरकार राजस्थानी फिल्मों को टैक्स फ्री करती तो है?
यह सही तो है कि राज्य सरकार ने राजस्थानी फिल्मों को टैक्स फ्री करने का ऐलान किया और गजट में भी प्रकाशित किया। हकीकत इसके उलट है।  'सुपात्तर बेटी' को टैक्स करने की अरजी लगाए 10 माह बीत गए लेकिन अभी तक फिल्म टैक्स फ्री नहीं हुई। साथ ही 'बीरो भात भरण आयो', 'जय आवरी माता' जैसी फिल्मों की फाइलें पता नहीं कहां धूल चाट रही हैं।
आपके फिल्मी जीवन के सफर की शुरुआत कैसे हुई?
1979 में मुम्बई पहुंचा। वहां रजा मुराद से मुलाकात हुई। वे मुझे अपने घर ले गये, उनके साथ रहते-रहते मैंने तेजाब, इल्जाम, तमाचा, हुकुमत, आग ही आग, मर्दों वाली बात, हमसे न टकराना, कोहराम, शिवा शक्ति, कुदरत का कानून, घंूघट, मेरा मुकद्दर आदि फिल्में कीं।
राजस्थानी फिल्मों की ओर कैसे रुझान हुआ?
1990 में राजस्थानी फिल्म का निर्माण किया 'दिल दीवानो माने कोनी' जो फाइनेंस की वजह से अटक गई। इसी साल भोमली में छोटा सा किरदार मोहनसिंह राठौड़ ने दिया। इसके बाद जयपुर में मोहन कटारिया के धारावाहिक जय जीणमाता और म्हारो प्यारो राजस्थान में अच्छा रोल मिला। नीलू द्वारा निर्मित राजस्थानी फिल्म 'ओजी रे दीवाना' में मेरा अभिनय देखकर भरत नाहटा ने अपनी फिल्म 'खम्मा खम्मा वीर तेजा' में मौका दिया। इसके बाद जोधपुर के राजन पंवार ने 'म्हारी-आखातीज' में मुख्य खलनायक की भूमिका सौंपी। शंकर कुंदन की 'केसरिया बालम द जेन्टलमेन' में मुख्य नायक बना और अब 'सुपात्तर बेटी' में मुख्य खलनायक।
आने वाली फिल्में कौन-कौन सी हैं?
राजस्थानी में 'संकट मोचन द ट्रबल शूटर' और 'सांवरिया द जेन्टलमैन' मेरी आने वाली फिल्में हैं। इसके अलावा एक-दो फिल्मों की बात चल रही है।
आपने पॉजिटिव रोल भी किए हैं और निगेटिव भी। किसमें ज्यादा मजा आया?
निगेटिव रोल करने में। इसका कारण यह है कि खलनायक के चरित्र में विभिन्न रंग होते हैं, हीरो के रोल में लिमिटेड। इसलिए मैं खलनायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहता हूं।  प्राण और अजीत मेरे आदर्श हैं। मैं उनके जैसे रोल करना चाहता हूं।

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