फिल्में ही नहीं बनती तो समारोह कैसा : नाहटा
मशहूर राजस्थानी फिल्म निर्माता भरत नाहटा ने जयपुर में प्रस्तावित राजस्थानी फिल्म समारोह पर बेबाकी से रखा फिल्मकारों का पक्ष
भास्कर न्यूज. जोधपुर
राजस्थानी फिल्मों के निर्माता भरत नाहटा का मानना है कि वर्तमान दौर में जब राजस्थानी फिल्में न के बराबर बन रही हैं तो इससे संबंधित फिल्म समारोह का कोई औचित्य ही नहीं है। फिल्म जगत के वर्तमान परिदृश्य पर शनिवार को यहां चर्चा के दौरान उन्होंने भास्कर से कहा कि तमिल, तेलुगू, मलयालम व कन्नड़ जैसी दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्में बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों पर भारी पड़ती हैं। इसी तरह मराठी, गुजराती, पंजाबी व भोजपुरी फिल्में सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मना रही हैं। वहीं राजस्थानी में पिछले दशक के दौरान कुल जमा तीन या चार फिल्में बनी हैं। इनका भी कई शहरों में रिलीज होना अभी बाकी है। ऐसे में जयपुर के जवाहर कला केंद्र में 23 से 25 सितंबर तक राजस्थानी फिल्मों का समारोह किस उद्देश्य से किया जा रहा है, यह समझ से परे है।
नाहटा परिवार ‘बाबासा री लाडली’, ‘धणी लुगाई’, ‘बाबा रामदेव’, ‘वीर तेजाजी’, ‘धर्मभाई’ तथा ‘देराणी जेठाणी’ जैसी फिल्में बना चुका है। इनमें 1987 में सुपर हिट रही बाई चाली सासरिए के निर्माता भरत नाहटा का कहना है कि इस तरह के समारोह आयोजन से पहले उन्हीं की तरह के तीन चार निर्माता निर्देशक यथा मोहन सिंह, संदीप वैष्णव, नीलू तथा सुरेंद्र बोहरा आदि से चर्चा कर ली जाती तो शायद समारोह सार्थक हो सकता था। राजस्थानी फिल्मों के संबंध में पत्रकार एमडी सोनी ने दूरभाष पर बताया कि चालीस के दशक में बनी पहली राजस्थानी फिल्म ‘नजराना’ से वर्ष 2010 तक 110 राजस्थानी फिल्में बन चुकी थी। पिछले दस वर्ष में मात्र 12 फिल्मों के बनने की सूचना है हालांकि इनमें से सिर्फ 3-4 फिल्मों ने ही थिएटर का मुंह देखा।
सरकारी उदासीनता से बेजार
भरत नाहटा का कहना था कि दूसरे प्रदेशों में क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को सरकार प्रोत्साहन देती है। वहां के थिएटर में प्रति वर्ष कुछ महीनों तक स्थानीय भाषा की फिल्में दिखाने की बाध्यता है। साथ ही शूटिंग व स्टूडियो आदि की सहूलियत व सब्सिडी भी दी जाती रही है। राजस्थान में हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राजस्थानी फिल्म निर्माण के लिए 5 लाख तक की सब्सिडी देने की घोषणा की है, लेकिन यह नाकाफी है। आजकल तो एक डॉक्यूमेंट्री के निर्माण में 10 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। राजस्थानी फिल्म का बनाने में कम से कम 60- 70 लाख रुपए लगते हैं।
भास्कर न्यूज. जोधपुर
राजस्थानी फिल्मों के निर्माता भरत नाहटा का मानना है कि वर्तमान दौर में जब राजस्थानी फिल्में न के बराबर बन रही हैं तो इससे संबंधित फिल्म समारोह का कोई औचित्य ही नहीं है। फिल्म जगत के वर्तमान परिदृश्य पर शनिवार को यहां चर्चा के दौरान उन्होंने भास्कर से कहा कि तमिल, तेलुगू, मलयालम व कन्नड़ जैसी दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्में बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों पर भारी पड़ती हैं। इसी तरह मराठी, गुजराती, पंजाबी व भोजपुरी फिल्में सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मना रही हैं। वहीं राजस्थानी में पिछले दशक के दौरान कुल जमा तीन या चार फिल्में बनी हैं। इनका भी कई शहरों में रिलीज होना अभी बाकी है। ऐसे में जयपुर के जवाहर कला केंद्र में 23 से 25 सितंबर तक राजस्थानी फिल्मों का समारोह किस उद्देश्य से किया जा रहा है, यह समझ से परे है।
नाहटा परिवार ‘बाबासा री लाडली’, ‘धणी लुगाई’, ‘बाबा रामदेव’, ‘वीर तेजाजी’, ‘धर्मभाई’ तथा ‘देराणी जेठाणी’ जैसी फिल्में बना चुका है। इनमें 1987 में सुपर हिट रही बाई चाली सासरिए के निर्माता भरत नाहटा का कहना है कि इस तरह के समारोह आयोजन से पहले उन्हीं की तरह के तीन चार निर्माता निर्देशक यथा मोहन सिंह, संदीप वैष्णव, नीलू तथा सुरेंद्र बोहरा आदि से चर्चा कर ली जाती तो शायद समारोह सार्थक हो सकता था। राजस्थानी फिल्मों के संबंध में पत्रकार एमडी सोनी ने दूरभाष पर बताया कि चालीस के दशक में बनी पहली राजस्थानी फिल्म ‘नजराना’ से वर्ष 2010 तक 110 राजस्थानी फिल्में बन चुकी थी। पिछले दस वर्ष में मात्र 12 फिल्मों के बनने की सूचना है हालांकि इनमें से सिर्फ 3-4 फिल्मों ने ही थिएटर का मुंह देखा।
सरकारी उदासीनता से बेजार
भरत नाहटा का कहना था कि दूसरे प्रदेशों में क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को सरकार प्रोत्साहन देती है। वहां के थिएटर में प्रति वर्ष कुछ महीनों तक स्थानीय भाषा की फिल्में दिखाने की बाध्यता है। साथ ही शूटिंग व स्टूडियो आदि की सहूलियत व सब्सिडी भी दी जाती रही है। राजस्थान में हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राजस्थानी फिल्म निर्माण के लिए 5 लाख तक की सब्सिडी देने की घोषणा की है, लेकिन यह नाकाफी है। आजकल तो एक डॉक्यूमेंट्री के निर्माण में 10 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं। राजस्थानी फिल्म का बनाने में कम से कम 60- 70 लाख रुपए लगते हैं।
(दैनिक भास्कर से साभार)
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